लोकसभा के चुनावी नतीजों ने बीएसपी सुप्रीमो मायावती को बेचैन कर दिया है? उत्तर प्रदेश के सियासी गलियारों में यह सवाल इन दिनों 2 वजहों से चर्चा में है. पहली वजह मायावती की तरफ से लिए गए हालिया फैसले हैं. विपक्ष में रहते हुए कभी-कभार उपचुनाव लड़ने वाली मायावती ने यूपी की आगामी 10 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव लड़ने की घोषणा की है. इन सीटों पर नवंबर में चुनाव हो सकते हैं. इसी कड़ी में बहनजी ने एक और फैसला खुद बीएसपी की राष्ट्रीय अध्यक्ष बन अपने भतीजे आकाश आनंद उत्तराधिकारी घोषित करने का लिया है.
मायावती की बैचेनी को लेकर सवाल उठने की दूसरी वजह उनके कांग्रेस और सपा पर हमलावर रवैया है. पिछले एक महीने में मायावती ने कांग्रेस और सपा के खिलाफ अपने सोशल मीडिया हैंडल से 6 पोस्ट किए हैं, जो बीजेपी के मुकाबले 3 गुना ज्यादा है. मायावती के इन पोस्टों में लखनऊ गेस्ट हाउस कांड और एससी-एसटी एक्ट में सबकोटा जैसे बड़े मुद्दे रहे हैं.सोमवार को मायावती ने 29 साल पुराने गेस्ट हाउस कांड में कांग्रेस की चुप्पी पर सवाल पूछा. वो भी उस राज्यपाल को केंद्र में रखकर, जिसे 2007 में बहनजी ने राष्ट्रपति बनाने की सिफारिश की थी.
क्यों बैचेन हैं बहनजी, ये हैं 3 वजहें
- यूपी में खिसक गया आधार वोट बैंक
2012 के बाद से ही मायावती किसी भी चुनाव में लीड नहीं ले पाई है. 2024 के चुनाव में तो उनकी पार्टी का आधार वोटबैंक भी खिसक गया. बीएसपी लोकसभा के हालिया चुनाव में वोट प्रतिशत के मामले में उत्तर प्रदेश में सिंगल डिजिट में सिमट गई है. देश के सबसे बड़े सूबे में पार्टी को सिर्फ 9 प्रतिशत वोट मिले हैं.
1993 के बाद यह पहली बार है, जब यूपी में पार्टी का वोट प्रतिशत एक अंकों में सिमटा हो. मायावती की पार्टी दलितों की राजनीति करती है और यूपी में इनकी आबादी 20 प्रतिशत के आसपास है, जिसमें 12 प्रतिशत जाटव और 8 प्रतिशत गैर-जाटव दलित हैं. खुद मायावती जाटव समुदाय से आती हैं. यूपी में इस बार दलित वोट तीन भागों में बंट गए. जाटव समुदाय का एक बड़ा हिस्सा मायावती के साथ रहा, जबकि नॉन-जाटव दलित कांग्रेस और सपा की ओर शिफ्ट कर गया. इन दोनों समुदाय का आंशिक वोट बीजेपी को भी मिला. सीएसडीएस के मुताबिक मायावती को जाटव समुदाय के तो 44 प्रतिशत वोट मिले, लेकिन नॉन जाटव के सिर्फ 15 प्रतिशत वोट बीएसपी के पक्ष में पड़े. सपा और कांग्रेस को नॉन-जाटव समुदाय का 56 प्रतिशत वोट मिला. वहीं इंडिया गठबंधन जाटव समुदाय में भी सेंध लगाने से नहीं चूका. गठबंधन को इस समुदाय का 25 प्रतिशत वोट मिला. बीजेपी गठबंधन को नॉन जाटव समुदाय का 24 और जाटव समुदाय का 29 प्रतिशत वोट मिला. उत्तर प्रदेश में दलितों के लिए रिजर्व 17 सीटों में से बीजेपी गठबंधन को 8 और कांग्रेस गठबंधन को 9 सीटों पर जीत मिली. बीएसपी एक भी सीट नहीं जीत पाई.
- मुद्दों पर बढ़त लेने में कांग्रेस-सपा आगे
चाहे संविधान बदलने का मुद्दा हो, चाहे जाति आधारित जणगणना का मुद्दा हो, चाहे लेटरल एंट्री या अन्य कोई और…दलितों के बड़े मुद्दों को उठाने में कांग्रेस और सपा हमेशा बढ़त लेने में आगे रही है. जमीनी स्तर पर दलितों के मुद्दे को उठाने का फायदा भी दोनों पार्टियों मिला है.
यूपी में बीएसपी के जो क्षेत्रीय क्षत्रप में पहले थे, अब उनमें से अधिकांश सपा या कांग्रेस में आ चुके हैं. इनमें इंद्रजीत सरोज, आरके चौधरी, मिठाई लाल भारती जैसे दलित नेता और रामअचल राजभर, लालजी वर्मा जैसे ओबीसी नेता शामिल हैं.बीएसपी के संस्थापक सदस्य और मोहनलालगंज से सपा के सांसद आरके चौधरी ने हाल ही में कहा था कि बीएसपी पहले की तरह दलितों के मुद्दे उठाने में एक्टिव नहीं है. बहनजी सड़कों पर उतरना नहीं चाहती हैं. ऐसे में दलित मतदाता अपने लिए नई राह तलाश रहे हैं.यूपी में पिछले 12 साल से मायावती या उनकी पार्टी के टॉप-5 में से कोई भी नेता किसी बड़े मुद्दे पर सड़कों पर नहीं दिखे.
- सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने और बढ़ा दी चिंता
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एससी-एसटी आरक्षण में सबकोटा सिस्टम लागू करने का आदेश दिया है. इस आदेश के तहत एसस-एसटी के उन जातियों को आरक्षण का लाभ मिलेगा, जो क्रीमिलेयर में शामिल नहीं हैं. मायावती इसका विरोध कर रही हैं.
फिलहाल, केंद्र ने भी इसे लागू नहीं करने की बात कही है, लेकिन अब तक इसे रोकने के लिए केंद्र की तरफ से कोई वैधानिक उपाय नहीं किए गए हैं. ऐसे में कहा जा रहा है कि यह मुद्दा फिर से कभी भी तूल पकड़ सकता है.यूपी में जाटव समुदाय का सियासी और आर्थिक तौर पर दबदबा माना जाता है. ऐसे में अगर क्रीमिलेयर के आधार पर दलित फूटते हैं तो इसे संभाल पाना मायावती के लिए आसान नहीं होगा. अगर ऐसा होता है तो उनके वोटबैंक में और ही ज्यादा गिरावट आ सकती है.